• कांग्रेस लगभग अकेली है सामाजिक न्याय की लड़ाई में

    न्याय की इस लड़ाई का फलक वैसे तो काफी बड़ा होना था और उसमें वे सारे दल शामिल होकर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ते जो राहुल गांधी द्वारा निकली दोनों भारत जोड़ो यात्राओं में संग-संग चले थे, क्योंकि सामाजिक न्याय का यह तत्व उन्हीं दो यात्राओं से निकला है।

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    —डॉ. दीपक पाचपोर
    न्याय की इस लड़ाई का फलक वैसे तो काफी बड़ा होना था और उसमें वे सारे दल शामिल होकर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ते जो राहुल गांधी द्वारा निकली दोनों भारत जोड़ो यात्राओं में संग-संग चले थे, क्योंकि सामाजिक न्याय का यह तत्व उन्हीं दो यात्राओं से निकला है। दूसरे, जो भी भाजपा के खिलाफ लड़ाई में इंडिया के साथ लड़ने को उतरे हैं।
    वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से दो बातें बिलकुल साफ हैं- पहली तो यह कि सामाजिक धु्रवीकरण का मुकाबला केवल सामाजिक न्याय के जरिये ही सम्भव है; और दूसरे, न्याय की इस लड़ाई में कांग्रेस लगभग अकेली है। इसमें कुछ साथी ज़रूर उसके साथ यदा-कदा दिख पड़ते हैं लेकिन उनका साथ स्थायी मानकर न ही चला जाये तो बेहतर होगा। जिस ढंग से कांग्रेस ने सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक न्याय का एक मुकम्मल पैकेज पेश किया है, उसे आगे बढ़ाने की ताकत ज्यादातर सियासी दल खो चुके हैं- फिर चाहे वे कांग्रेस के सीधे विरोधी हों या उसकी सहयोगी पार्टियां जो इंडिया गठबन्धन के हिस्से हैं। उम्मीद तो यही की जा रही थी कि इस लड़ाई को पूरा प्रतिपक्षी गठजोड़ मिलकर लड़ता, लेकिन साफ दिखता है कि इस संघर्ष से वह एक तरह से दूरी बनाये हुए है। गिनती के कुछ दल ऐसे हैं जो इस विमर्श को अपनी विचारधारा के अनुरूप या समीप पाते हैं, पर एक सीमा तक आकर तो उन्हें ठहर जाना होता है या वे लौट जाते हैं। बेहतर हो कि कांग्रेस पहले से यह मानसिकता बनाकर इस लड़ाई को तेज़ करे कि, जो साथ आये उसका भी भला, जो न आये उसका भी भला!

    न्याय की इस लड़ाई का फलक वैसे तो काफी बड़ा होना था और उसमें वे सारे दल शामिल होकर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ते जो राहुल गांधी द्वारा निकली दोनों भारत जोड़ो यात्राओं में संग-संग चले थे, क्योंकि सामाजिक न्याय का यह तत्व उन्हीं दो यात्राओं से निकला है। दूसरे, जो भी भाजपा के खिलाफ लड़ाई में इंडिया के साथ लड़ने को उतरे हैं, उनके लिये यह एक तरह से अघोषित साझा न्यूनतम कार्यक्रम है। 'न्याय' की यह लड़ाई त्रिकोणीय है- सामाजिक के साथ राजनीतिक व आर्थिक भी। 'भारत जोड़ो यात्रा' (कन्याकुमारी से श्रीनगर- 7 सितम्बर, 2022 से 30 जनवरी, 2023 तक) तो राहुल ने नफरत के माहौल को खत्म करने के लिये निकाली थी, पर दूसरी यात्रा (मणिपुर से मुम्बई- 14 जनवरी से 18 मार्च, 2024) का नाम इसलिये 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' रखा गया क्योंकि तब तक यह विमर्श प्रगाढ़ व मुखर हो गया था। सियासी व चुनावी रणनीति पर विचार करते हुए गठबन्धन को इस बात का इल्म हो चला था कि भाजपा के धु्रवीकरण के खिलाफ़ सामाजिक न्याय ही कारगर काट है। भूले-भटके भाजपा की पिच पर जा पहुंचने वाली कांग्रेस भी सतर्क हुई तथा उसने सामाजिक न्याय की मिट्टी बिछाकर खुद का अखाड़ा तैयार किया जिस पर आकर खेलने के लिये भाजपा को अक्सर मजबूर होना पड़ रहा है।

    जब न्याय की बात चलती है तो संविधान अपने आप उपस्थित हो जाता है। जो संविधान एक तरह से कांग्रेस व बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की देन है, उसकी वही भाजपा संरक्षण बनने के लिये छटपटा उठी जो अब तक उसके खिलाफ थी। इसका आभास भाजपा को पिछले वर्ष हुए लोकसभा के चुनावों में हो गया था। संविधान बदलने की मंशा से 370 सीटें पाने का उसका लक्ष्य ध्वस्त हो गया और वह 240 पर सिमट गयी। कुल 400 के पार वह जाना चाहती थी। सरकार बनाने के लिये उसे तेलुगु देसम पार्टी व जेडीयू का सहारा लेना पड़ा। वैसे भाजपा को बीच चुनाव में आभास होने लगा था कि उसके कुछ साथियों का संविधान बदलने का प्रलाप उसे महंगा पड़ने जा रहा है, लिहाजा उसने अपना रंग बदला और खुद को संविधान का रक्षक बतलाने का दावा पेश कर दिया, क्योंकि सभी तरह के न्याय व अधिकारों का वही उत्स है। चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री मोदी ने कहना शुरू किया कि 'जब तक वे हैं तब तक संविधान बदलने तथा आरक्षण खत्म करने की अनुमति वे किसी को नहीं देंगे।' हालांकि यह दांव बहुत काम नहीं आया।

    जो भी हो, संविधान चर्चा के केन्द्र में तभी से आ गया। संविधान के प्रति अपना प्रेम व श्रद्धा जतलाने के लिये पिछले दिनों संसद का दो दिवसीय सत्र इसी विषय पर किया गया- संविधान की 75 वर्षों की स्वर्णिम यात्रा। इसे लेकर भाजपा या उसका गठबन्धन (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) बहुत कुछ हासिल नहीं कर सका लेकिन संविधान और उसके निमित्त सामाजिक न्याय आम बहस में आ गया। इसी चर्चा के दौरान विपक्षी सदस्यों द्वारा अंबेडकर का नाम लिये जाने पर जब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 'अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर...' वाला तंज कसा तो देश भर में बवाल हो गया। शाह के इस्तीफे व माफी की मांग तो उठी ही, मोदी से कहा गया कि वे शाह को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करें। वह लड़ाई संसद के बाहर बड़े रूप में पहुंची।
    बेलगावी (कर्नाटक) में कांग्रेस ने एक विशेष अधिवेशन पिछले साल 26 व 27 दिसम्बर को आयोजित किया था जो ठीक 100 वर्ष पूर्व इसी जगह पर इन्हीं तारीखों पर आयोजित किये गये ऐतिहासिक अधिवेशन की याद में था जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी द्वारा की गयी थी। इस अधिवेशन के लिये कांग्रेस ने 'जय बापू जय भीम जय संविधान' का नारा देकर सामाजिक न्याय के लिये अपनी प्रतिबद्धता का इज़हार किया। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन से वह कार्यक्रम एक ही दिन हो सका था। पिछले हफ्ते 'सुवर्ण सौध' कहे जाने वाले उस स्थल पर कांग्रेस ने महात्मा गांधी की विशालकाय प्रतिमा स्थापित की है। साथ ही कांग्रेस ने बाबासाहेब की जन्म स्थली महू (इंदौर के निकट, मध्यप्रदेश) में संविधान रक्षा के प्रति अपनी कटिबद्धता जाहिर करने के लिये सोमवार को विशाल रैली की जिसमें बहुत विस्तार से राहुल गांधी ने संविधान के महत्व को प्रतिपादित करते हुए बताया कि वंचित समाज के लिये उसकी रक्षा क्यों ज़रूरी है।

    कहने को तो कांग्रेस एक बड़े गठबन्धन का नेतृत्व कर रही है। भाजपा-एनडीए के खिलाफ इंडिया न सिर्फ एकमात्र गंठजोड़ है वरना उसने अपनी ताकत को पिछले लोकसभा चुनाव में साबित भी किया है, परन्तु सामने यही दिखता है कि संविधान की रक्षा तथा उसकी सियासी महत्ता के बावजूद इस लड़ाई में कांग्रेस लगभग अकेली है। सैद्धांतिक तौर पर कुछ उसके सहयोगी दल हैं तो सही परन्तु वे उसके साथ मैदान में कहीं नहीं दिखते। बिहार के सीएम नीतीश कुमार तो चुनाव के पहले ही पलटी मार गये थे, तेजस्वी यादव (बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री), अखिलेश यादव (उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम) आदि इस लड़ाई में कांग्रेस के साथ राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय नहीं हैं न ही वे पर्याप्त मुखर हैं। दिल्ली के अरविंद केजरीवाल जैसों से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती।

    कांग्रेस द्वारा जिस प्रभावी ढंग से सामाजिक न्याय की बात उठाई जा रही है, सम्भवत: उसे दबाने के लिये भाजपा की ओर से धु्रवीकरण के प्रयास भी तेज हो रहे हैं। इनमें से कुछ उपक्रम पहले से ही प्रक्रिया के अंतर्गत थे तो कुछ आगे चलकर किये जायेंगे। एक ओर तो वक्फ़ बोर्ड में परिवर्तन के लिये बनाई गयी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने भाजपा के सदस्यों की वे सारी सिफारिशें मान ली हैं जिनसे भाजपा को धु्रवीकरण में मदद मिलेगी, तो वहीं भाजपा प्रशासित राज्यों में समान नागरिकता कानून (यूसीसी) उत्तराखंड की तज़र् पर लागू हो सकता है। भाजपा के समर्थक साधु-संत तो प्रयागराज कुम्भ में आयोजित धर्म संसद में देश को 'हिन्दू राष्ट्रÓ घोषित करने की मांग की तैयारी कर ही रहे हैं। धु्रवीकरण की काट के रूप में सामाजिक न्याय की यह लड़ाई कांग्रेस को अकेले ही लड़नी होगी- पार्टी इसे गांठ बांध ले। ?
    (लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)

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